कचरा चुनते हुए यहां पहली कक्षा में आयी थी बच्चियां, इस साल देंगी मैट्रिक की परीक्षा

- सामाजिक संस्था नयी धरती की मदद से 2009 में आयी थीं छह बच्चियां
- सभी इस साल देंगी मैट्रिक की परीक्षा
रविशंकर उपाध्याय, मनेर.

यह कहानी कोई सुपर 30 जैसी तो नहीं है लेकिन उससे कम भी नहीं है. इसके किरदार में मुसहर समुदाय की वैसी छह बच्चियां हैं जो पटना के विभिन्न स्लमों में रहकर कचरा चुनने का काम करती थीं. इनमें से ज्यादातर के पिता शराब में अपनी जिंदगी होम किये हुए थे तो इनकी माताएं घरों को चलाने की जद्दोजहद में कहीं-कहीं काम कर दो पैसे कमा रही थी. बच्चियों की फिक्र में वह उन्हें एक ऐसे स्कूल में पहुंचाती हैं, जहां पर उसकी पढ़ाई-लिखाई होती है. उन्हें खाना-पीना दिया जाता है और कराटे से लेकर गीत-संगीत की भी सीख दी जाती है. सभी छह बच्चियां यहां पहली कक्षा में यहां 2009 में पढ़ने आयी थी और लगातार यहीं रहकर इस साल वे मैट्रिक यानी दसवीं की परीक्षा देंगी. इन लड़कियों की आंखों में दसवीं की परीक्षा देने की चमक पढ़ी जा सकती है, उनका बढ़ा हुआ आत्मविश्वास महसूस किया जा सकता है और सबसे बढ़कर दुनिया के साथ जुड़ जाने की ललक को साफ देखा जा सकता है.
हर बच्ची की एक सी कहानी, सबने अपनी कमजोरी को ताकत बना लिया
जब हम मनेर प्रखंड के मोहरी बगीचा, हाथीकंद सराय स्थित नयी धरती द्वारा चलाये जा रहे बोर्डिंग स्कूल सिस्टर निवेदिता बालिका स्कूल में पहुंचते हैं तो यहां हमें दसवीं कक्षा में गणित पढ़ रही बच्चियां दिखती हैं. वह अपने शिक्षक से गणित के सूत्र समझ रही हैं. अपनी दिनचर्या के मुताबिक सुबह में साढ़े पांच बजे उठकर नित्यकर्म से निवृत हो चुकी होती हैं और उसके बाद प्रार्थना, योग व चना-गुड़ का नाश्ता. स्नान और भोजन के बाद सभी क्लास में हैं. यहां से पढ़ाई चार बजे खत्म होनी है फिर खेलकूद, प्रार्थना और शाम का नाश्ता. रात में नौ बजे तक पढ़ने के बाद भोजन और सो जाना. यही इनकी दिनचर्या है. वार्डेन और काउंसेलर शिल्पी इनकी दिनचर्या को मेंटेन करती है. वह कहती हैं कि पांच साल पहले वह यहां आयी थी. आज इन बच्चियों को देखकर यह लगता है कि परिवर्तन कितनी सकारात्मक प्रक्रिया होती है. आज सभी बच्चियां न केवल पढ़ने में तेज हैं बल्कि वह कराटे, गीत-संगीत में भी निपुण हो चुकी हैं.
इन बच्चियों ने अपनी कमजोरी को ही ताकत बना लिया.
जूली कुमारी: छह बहनों में पांचवें नंबर पर रही जूली का घर पटना के गोसाईंटोला में है. जूली की मां कचरा चुनने का काम करती थी. छह साल की उम्र में पिता रामप्रवेश मांझी की मौत हो गयी तो वह भी कचरा चुनने में मां का हाथ बंटाने लगी. इसी बीच उसकी मां को पता चलता है कि एक स्कूल में इन्हें फ्री में पढ़ाया-लिखाया जा सकता है. इसके बाद वह यहां आ गयी.
रिंकी कुमारी: नेहरु नगर, पटना की ही रिंकी के पिता ठेला चलाते हैं. मां हाउसवाइफ हैं. वह कहती है कि जहां रहते थे बहुत गंदगी थी, कोई पढ़ने नहीं जाती थी. कुर्जी हॉस्पिटल की सिस्टर के कहने पर इस स्कूल में पहुंच गयी. अब सब मुझसे प्रेरित होती है. अब तो घर से ज्यादा यहीं मन लगता है. वह एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हुए कहती है कि उसके मौसा शराब पीते थे, मैंने उन्हें पुलिस की धमकी दी तो पीना छोड़ दिया.
सुंदरी कुमारी: दीघा की सुंदरी कुमारी की मां स्कूल में रसोइया का काम करती है. जब 2010 में यह यहां पहुंची तो कचरा चुनती थी. वहां माहौल ठीक नहीं था. खिलौना, लोहा, शीशा आदि चुनने का काम करती थी. 50 रुपया दिन भर काम करने के बाद मिलता था. यहां आयी तो जिंदगी बदल गयी. हालांकि उसके पिता दुखन मांझी को शराब पीने की लत है. जब सुंदरी घर जाती है तो नहीं पीते हैं लेकिन बाद में पीते हैं. इस बार कसम खायी है कि उनकी लत खत्म कर देगी.
शोभा कुमारी: जलालपुर, दानापुर की शोभा कुमारी के पापा श्याम मांझी लेबर हैं और मां आंगनबाड़ी में रसोइया. पांच भाई बहनों में एक शोभा कुमारी पांचवें नंबर पर हैं. इसके पढ़ने के बाद छोटा भाई भी कंप्यूटर सीख रहा है. बड़ा भाई कॉलेज जाता है. अब इससे आसपास के लोग इल्तजा करते हैं कि उनके बच्चों का भी एडमिशन करा दो.
गुड़िया कुमारी: नेहरू नगर की ही गुड़िया के पापा रिक्शा चलाते हैं. चार साल की उम्र में गुड़िया कचरा बिनने लगी आज गणित के सूत्र सुलझाती है. चार भाईयों में दो छोटा भाई सरकारी स्कूल में पढ़ता है. इसके कारण पापा ने शराब पीना छोड़ दिया है.
उर्मिला कुमारी: नेहरू नगर की ही उर्मिला ने अपनी बहन रिंकी से सीख लेकर यहां आयी. वह खिचड़ी खाने के लिए पहले आंगनबाड़ी जाती थी और आज यहां धड़ल्ले से अंग्रेजी में बोलती है. ये सभी बच्चियां जब अभी दशहरा-होली में अपने घर जाती है तो आसपास की बच्चियों को पढ़ाती है, डांस सिखाती हैं.
सभी बच्चियों से जुड़ी हुई है उम्मीदें 

नयी धरती संस्था की संस्थापक सचिव नंदिता बनर्जी कहती हैं कि आज स्कूल में सौ के आसपास बच्चियां पढ़ रही हैं. हमलोगों को इन छह बच्चियों से काफी उम्मीदें हैं क्योंकि इन्होंने शून्य से पढ़ना शुरू किया. आज सभी मैट्रिक की परीक्षा की तैयारी में तन्मयता से लगी हुई हैं. इनके साथ हमारी भावनाएं भी जुड़ी हुई है.
संस्था सरकार से नहीं लेती है कोई मदद
नंदिता बनर्जी बताती हैं कि नयी धरती को इस प्रोजेक्ट में 40 से 45 लाख रुपया सालाना खर्च आता है लेकिन वह सरकार से कोई मदद नहीं लेती हैं. 2009 से 18 तक हमें एसबीआइ की ओर से भोजन उपलब्ध कराया गया. पढ़ाई का खर्च ग्लैक्सो स्मीथ क्लीन की ओर से मिलता है और अन्य खर्च हमें एसबीआइ लाइफ देती है. पटना का होटल सुजाता भी हमें लगातार दान देता है.

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