नालंदा विश्वविद्यालय से शुरू हुई थी प्रवेश परीक्षाओं की परंपरा

नालंदा विवि के भग्नावशेष 
रविशंकर उपाध्याय®पटना.
आज जब विश्व के सभी शैक्षणिक संस्थानों में प्रतिभा को परखने के लिए इंट्रेंस टेस्ट यानी प्रवेश परीक्षा का आयोजन होता है, वैसे में क्या आपने सोचा है कि इस परंपरा की शुरुआत कहां से हुई थी. यह जानना बेहद दिलचस्प है कि जिस मुल्क में आज टॉप यूनिवर्सिटी का भी अभाव है उसी देश में कभी दुनिया की सबसे बेहतर यूनिवर्सिटी थी. नालंदा यूनिवर्सिटी. इसे गुप्त वंश के सम्राट कुमार गुप्त ने बनवाया था. 450 ई. में इसकी स्थापना हुई थी. उस जमाने में यहां विभिन्न देशों के 10 हजार से अधिक विद्यार्थी निवास और अध्ययन करते थे. 12वीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी ने भले इसे तहस-नहस कर दिया था लेकिन इसके पहले इसकी समृद्धि पूरी दुनिया में फैल चुकी थी. सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग भी यहां अध्ययन करने आया था. उसके कई लेखों में यहां की अध्ययन प्रणाली, अभ्यास और मठ वासी जीवन की पवित्रता का उत्कर्ष वर्णन मिलता है. इसी विश्वविद्यालय में पहली बार प्रवेश परीक्षा की परंपरा शुरू हुई थी.

नालंदा विश्वविद्यालय
नालंदा विवि में प्रवेश के पहले द्वारपालों को देनी होती थी परीक्षा
ह्वेन सांग ने ही लिखा है कि यह ऐसा विश्वविद्यालय था जिस परिसर में आपको प्रवेश के पूर्व मुख्य द्वार पर ही द्वारपालों से शास्त्रार्थ करना पड़ता था. वह तय करता था कि इस विश्वविद्यालय में जाने के लिए लायक हैं या नहीं. प्राचीन भारत का राजनैतिक और सांस्कृतिक इतिहास नामक पुस्तक में धनपति पांडे लिखते हैं कि इसके साथ ही नालंदा विवि में प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और उसके कारण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे. उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था. यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है. बिहार हेरिटेज डेवलपमेंट सोसाइटी के उप निदेशक डॉ अनंताशुतोष द्विवेदी कहते हैं कि यह प्रक्रिया ऐसी ही थी जैसी आज के महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में कोर्स के लिए कैट, मैट, जैट, जेईई, एआइईईई आदि परीक्षाएं ली जाती है.

नालंदा विश्वविद्यालय
दान में मिले दो सौ गांवों से होता था विश्वविद्यालय का कुशल प्रबंधन
समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे. कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे. प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति विश्वविद्यालय की आर्थिक तथा प्रशासनिक व्यवस्था संभालती थी. विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गांवों से प्राप्त उपज और आय की देख रेख यही समिति करती थी. इसी से हजारों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था. इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे. नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे. सातवीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे. प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलविद् आर्यभट्ट भी इस विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे. उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध है, वे हैं: दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र.

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