धर्म अलग लेकिन पेश कर रहे धार्मिक समरसता की मिसाल : धर्म की बेड़ियां तोड़ दूसरे धर्मों पर अध्ययन कर बनायी पहचान

-सिखिज्म पर अध्ययन और कैलेंडर बनाकर एक गैर सिख ने बनायी अंतरराष्ट्रीय पहचान
-एक हिंदू लड़के ने इस्लाम धर्म पर अध्ययन कर लिख दी कई किताबें
रविशंकर उपाध्याय4पटना.

धर्म की परिभाषा कहती है कि जो धारण किया जाये वही धर्म है और किसी भी धर्म के बारे में धारणा बनाने के पहले उसका अध्ययन करना बहुत आवश्यक है. बिहार में धर्मों को लेकर अध्ययन करने की पुरानी परंपरा रही है जो अब भी बदस्तूर जारी है. हर व्यक्ति का अपना-अपना शौक होता है. लेकिन शौक में जब इनोवेशन और कुछ अलग करने का जुनून आ जाये, तो कीर्तिमान बनने की ओर अग्रसर हो जाता है. कुछ ऐसे ही इनोवेशन और अनोखे शौक से अपनी पहचान बना चुके कुछ ऐसे लोगों की बात करेंगे जिनका धर्म कोई और है और उन्होंने अध्ययन किसी दूसरे धर्म को लेकर किया और आज वे उन धर्मों के बारे में न केवल प्रामाणिक रचनाएं कर रहे हैं बल्कि उस धर्म के बारे में विस्तार से दुनिया को बताते हैं. गलत धारणाओं को खत्म करते हैं. उन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है जिसमें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय उपलब्धियां भी शामिल है.
नरेश चंद्र माथुर ने सिख, इस्लाम और ईसाई धर्म पर विस्तृत अध्ययन किया नाला रोड के रहने वाले नरेश चंद्र माथुर ने सिखिज्म पर अध्ययन कर अंतरराष्ट्रीय पहचान बनायी है. उन्होंने ना केवल नालंदा ओपेन यूनिवर्सिटी से सिख धर्म पर अध्ययन के लिए सर्टिफिकेट लिया बल्कि गुरु गोविंद सिंह ही महाराज पर ए फोर साइज टेबल कैलेंडर भी लांच किया. यह नेशनल रिकॉर्ड भी था. सिखिज्म के ग्लोबल वैल्यूज पर भी उन्होंने इसी प्रकार का कैलेंडर बनाया है और इसके लिए भी उन्होंने लिम्का बुक रिकॉर्ड के लिए आवेदन दिया हुआ है. अभी वे गुरु ग्रंथ साहिब जी और सिख डिक्शनरी को संयोजित कर रहे हैं. इसके अलावा उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म को लेकर भी नालंदा ओपेन यूनिवर्सिटी से ही सर्टिफिकेट हासिल किया है.
कैलेंडर 'अपना गोविंद' को लिम्का बुक ऑफ रिकॉ‌र्ड्स 2018 में जगह मिली 
दशमेश गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह के 350 वें प्रकाशोत्सव के दौरान नरेश चंद्र माथुर द्वारा जारी किया गया कैलेंडर 'अपना गोविंद' को लिम्का बुक ऑफ रिकॉ‌र्डस 2018 में जगह मिली है. इस कैलेंडर को जत्थेदार ज्ञानी इकबाल सिंह ने प्रकाशोत्सव के दौरान जारी किया था. कैलेंडर की विशेषता यह है कि इसमें दिन के स्थान पर एक जनवरी से 31 दिसंबर तक की तिथि दी गयी है. इसी कैलेंडर में दशमेश गुरु गोविंद सिंह का संदेश प्रकाशित किया गया है. धर्म के इतर भी रहे हैं इस तरह के विशिष्ट शौक एसबीआई में सहायक महाप्रबंधक के पद से रिटायर्ड माथुर 1975 से अंग्रेजी और हिंदी अखबारों में छपे सामाजिक मुद्दे पर केंद्रित संपादकीय की कटिंग का संग्रह भी करते हैं. इसके लिए 2013 में लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स में नाम दर्ज किया गया था. इसके साथ ही यूनिक न्यूज कलेक्शन, पंच लाइन कोटेबल कोट्स में कैंसर जागरूकता, सेव वाटर का संदेश देते हुए कोट्स और यूनिक कैलेंडर से प्रभावित होकर लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स ने इनका नाम नेशनल रिकॉर्ड में शामिल किया था. देश-विदेश में हाई पर्सनालिटी पर फेंके गए जूते की अखबारों में प्रकाशित खबरों की लंबी लिस्ट इनके पास संग्रहित है. इनकी दिनचर्या सूर्य नमस्कार और पूजा के बाद अखबारों से होती है. हर दिन दो घंटे अखबार पढ़ते हैं और सामाजिक मुद्दे पर केंद्रित संपादकीय, यूनिक न्यूज की कटिंग कर उसकी फाइलिंग करते हैं. माथुर 67 साल के हो गए हैं. इसके बावजूद भी अब तक पढ़ाई जारी है. रिटायरमेंट के बाद जर्नलिज्म की पढ़ाई की. संस्कृत में ग्रेजुएशन भी किया है.
अविनाश की पूरी शिक्षा उर्दू में हुई, विधान पर्षद में उर्दू के सहायक हैं, उर्दू अदब में मिले कई पुरस्कार 
अविनाश 1999 से बिहार विधान पर्षद में बतौर उर्दू सहायक कार्यरत हैं. उनकी प्रारंभिक शिक्षा भागलपुर में उर्दू माध्यम के स्कूल में ही हुई. इसी दौरान इन्होंने इस्लामी तालीम ली. कुरआन शरीफ की आयतें पढ़ी, हदीस के बारे में जाना. माध्यमिक शिक्षा भी उर्दू में ही किया. ग्रेजुएशन में अरबी भाषा, एमए उर्दू से और पीएचडी भी अरबी से की. पढ़ाई के बाद खुदाबक्श लाइब्रेरी में ट्रांसलेटर और प्रूफ रीडर के तौर पर काम किया और इसके बाद बिहार विधान पर्षद में नौकरी हो गयी. इसके बाद अविनाश रुके नहीं. उन्होंने उर्दू अदब में गजलें लिखना शुरू किया. अबरे रबां यानी चलते हुए बादल. उर्दू की हास्य कथाएं ट्यूशन के झमेले भी लिखी. उनके द्वारा अनुदित किताबें खूशबू सरहदों के पार है जो अंग्रेजी से उर्दू में अनुदित हुई. उत्तर आधुनिकतावाद के निहितार्थ और संभावनाएं नामक अनुदित किताब भी लिखी. शेर का अहसास और दीगर अफसाने नामक कहानी संग्रह के साथ ही आलोचना की किताब अता आब्दी: तिलफिलात व ऐहतराफ भी लिख रहे हैं. हमारी कहानियां और हमारी गजलें भी अभी लिखी जा रही है. उनके उर्दू को दिये योगदान के कारण समग्र सेवा सम्मान और मुजफ्फरपुरी अवार्ड भी मिल चुके हैं. वे नातिया मुशायरों में भाग लेते रहते हैं.
भागलपुर के दंगों के दौरान भी नहीं कम हुआ था उर्दू के प्रति प्रेम 
अविनाश कहते हैं कि भागलपुर के दंगों के थमते ही उन्होंने फिर से स्कूल जाना शुरू कर दिया था. वे अपने स्कूल में अकेले हिंदू थे लेकिन उनको कभी यह महसूस नहीं हुआ कि वे दूसरे धर्म से हैं. सौहार्द्रपूर्ण माहौल मिला, परिवार ने प्रोत्साहित किया. स्कूल में वे हमेशा अपने गुरुजनों के प्रिय बने रहे. उनके साथ नमाज पढ़ता था, रोजा भी रखा और सभी पर्व त्योहारों में भाग लिया. अपने पिता से मिले धर्म का अपना विशिष्ट स्थान है लेकिन अन्य धर्म और भाषाओं का अध्ययन आपको विशिष्ट बनाता है.  

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