पटना के इस पूजा समिति ने अंग्रेजों से निबटने के लिए शुरू की थी दुर्गा पूजा

-आंदोलनकारियों के एकजुटता के लिए हुआ था पूजा का आह्वान
-बंगाली अखाड़ा में पहले होती थी पहलवानी, 1893 में पूजा की शुरुआत
पटना.

पटना में दुर्गा पूजा का बहुत पुराना इतिहास है. यहां तक कि अंग्रेजों से निबटने के लिए भी दुर्गा पूजा शुरू करने का इतिहास है जो आज भी बदस्तूर जारी है. यह ऐसी जगह है जहां मां दुर्गा की पूजा की शुरुआत स्वतंत्रता सेनानियों ने की थी. अंग्रेजों की नजर से बचने के लिए मां दुर्गा की प्रतिमा की स्थापना हुई थी और आज तक यहां पूजा होती आ रही है. इस जगह का नाम है लंगरटोली स्थित बंगाली अखाड़ा. अखाड़ा शब्द नाम इसलिए पड़ा कि 1893 से पहले यहां कुश्ती हुआ करती थी. यहां स्वतंत्रता संग्राम के दीवाने जुटते थे और लड़ाई की योजनाएं बनाते थे. अंग्रेज आंदोलनकारियों की रणनीति पर नजर नहीं रखें इसलिए 1893 से नवरात्र के मौके पर मां दुर्गा की पूजा करने लगे.
125 साल से हो रही है बंगाली अखाड़ा में पूजा 
राजधानी में यूं तो छह जगहों पर बंगाली रीति-रिवाज से पूजा होती है, जिसमें बंगाली अखाड़ा, आर ब्लॉक, बंगाली अखाड़ा, लंगर टोली, न्यू एरिया कदमकुआं, बंगाली अखाड़ा, गर्दनीबाग, रामकृष्ण मिशन आश्रम, नाला रोड और इंजीनियरिंग, क्लब बुद्ध मार्ग शामिल है. इन सबों में लंगरटोली का बंगाली अखाड़ा सबसे पुरानी जगह है, जहां आज भी धूमधाम से दुर्गा पूजा का आयोजन होता है. 125 सालों से यहां पूजा का आयोजन किया जा रहा है. यहां दुर्गा पूजा के मौके पर सभी प्रतिमाएं एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं. मां दुर्गा की प्रतिमा को काट-छांट किये बगैर साड़ी पहनाई जाती है. बांग्ला पद्धति में धनुची नृत्य का खास महत्व है. सप्तमी और नवमी तक आरती के समय धनुची नृत्य यहां आने वाले लोगों के लिए खास आकर्षण होता है.
षष्ठी से शुरू हो जाती है पूजा
बंगाली अखाड़ा में मां की पूजा षष्ठी से शुरू होती है. षष्ठी की पूजा के बाद मां का पट खुल जाता है. पांच दिनों के इस पर्व में महासप्तमी से नवमी तक चंडीपाठ होता है. साथ में हर दिन भगवान को भोग लगाया जाता है. यहां पर होने वाली कुमारी पूजा का अलग ही महत्व है. इस पूजा में सात साल से कम उम्र की बालिका को मां का साक्षात स्वरूप मानकर भव्य श्रृंगार किया जाता है फिर विधिपूर्वक पूजा-अर्चना होती है. अष्टमी की शाम में संधि पूजन का अपना अलग आकर्षण है. बंगाली समाज इसे असली पूजा कहते है. माना जाता है कि 50 मिनट की इस पूजा के दौरान मूर्ति में मां प्रवेश कर जाती है. यहां दशमी के दिन सिंदूर की होली खेली जाती है. 

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