बिहार में दलित सुरेंद्र ब्राह्मणों के लिए तैयार करते हैं जनेऊ, कलावती करती हैं राेजगार का सृजन


-कोई सुजनी-मधुबनी कला को कर रही एकाकार तो कोई एक तारा से छेड़ रहा कला के राग
- नृत्य कला मंदिर के शिल्पोत्सव में दिख रहे वंचित तबके के कला और शिल्प
-भारतीय नृत्य कला मंदिर में चल रहा आयोजन, 19 अप्रैल तक चलेगा शिल्पोत्सव
पटना.

बिहार को आप चाहे जितने जातीय खांचे में देखिए लेकिन इसकी एक दूसरी तस्वीर भी है. वह तस्वीर है सामाजिक समरसता का. ऐसे प्यार और स्नेह का जो कई जगहों पर दिखाई दे जाता है. पटना के भारतीय नृत्य कला मंदिर में वस्त्र मंत्रालय, केंद्र सरकार द्वारा यहां वंचित तबके के कलाकारों के लिए विशेष तौर पर कला और शिल्प का मेला लगाया गया है. ये वे लोग हैं जो संघर्ष के बल पर आगे बढ़े हैं. ये वे कलाकार हैं जिन्हें मंच काफी दिनों बाद मिल पाया है और ये वे लोग हैं जो दूसरे वर्ग को रोजगार देकर एक मिसाल पेश कर रहे हैं. नृत्य कला मंदिर में चल रहे आयोजन में उन्हीं कलाकारों की कला के विविध आयाम हैं. एससी कम्यूनिटी के लिए आयोजित इस शिल्पोत्सव में लगभग एक दर्जन काउंटर लगे हुए हैं. यहां कला के कद्र दानों और ग्राहकों की अच्छी भीड़ दिखाई दे रही है. यहां एक दलित कलाकार ब्राह्मणों के लिए जनेऊ बना रहा है तो दलित कलावती दलित महिलाओं के लिए रोजगार का सृजन कर रही हैं. इसके अलावा कोई सुजनी-मधुबनी कला को एकाकार कर रही है कोई
सुरेंद्र पासवान को कोई कला नहीं सिखाता था, आज वे प्रशिक्षक हैं. 
सुरेंद्र की कहानी मुश्किलों से भरी हुई है. श्री पुरहाटी, मधुबनी के रहने वाले सुरेंद्र का काम मधुबनी पेंटिंग का है. वे जहां भी सीखने जाते थे. नहीं सिखाया जाता था. मायूस होकर मधुबनी रेलवे स्टेशन पर चले जाते थे वहां पर देख कर संघर्ष किया और सीखा. सबसे पहले मौका मिला नई दिल्ली में. वहां पर पेंटिंग को काफी शोहरत मिली. वहां से लखनऊ फाइन आर्ट कॉलेज के प्राचार्य की मदद से ट्रेंनिंग देने गये. वहां सीखा ज्यादा, स्टूडेंट बने और एमएफए भी किया. अभी एक संस्था जननी महिला विकास समिति चलाते हैं. गांव में चार सौ महिला को स्वाबलंबी बनाये हुए हैं. ब्राह्मण के लिए शादी विवाह में कोहबर, जनेऊ उपलब्ध कराते हैं. शादी के लिए चांदडाला बनवाते हैं. लेडिज का आयटम बनवाते हैं. बांस की चूड़ियां-बाला, हेयररिंग, इयर रिंग, गले की हार आदि को मधुबनी पेंटिंग में ढालते हैं. मधुबनी मिथिला लाइन पेंटिंग के एक्सपर्ट हैं. एक मिथिला पेंटिंग, एक गोदना पेंटिंग, लाइन पेंटिंग और तांत्रिक पेंटिंग होता है. इसके लिए लखनऊ से एमएफए किया है. इसके अलावा आइटीआई की डिग्री किये हृुए हैं. सोलर सिस्टम पर भी काम किया है, यह अलग से काम करते हैं. ढोलक तबला नाद खरादने का काम करता था. उस मशीन को बेहतर बनाने के लिए भी प्रयास किया था. अब डमरू, बाला, इयररिंग आदि खराद करते हैं. इसमें महिला को इन्वॉल्व करते हैं.

बंगाल के विश्वनाथ दास जूट से बनाते हैं चप्पल जूते, रोजगार के टिप्स भी देते हैं.
बंगाल के विश्वनाथ दास जूट से चप्पल बनाते हैं और इनकी खासियत यह है कि वे 2019 तक एक ही रेट 200 रुपये में अपने उत्पाद बेचने का प्रण कर चुके हैं. वे महिला पुरुषों के लिए जूअ के फूट वियर बेचते हैं और इसका रिस्पांस बहुत बेहतर आता है. वे देश के विभिन्न शहरों में इसे बेचा करते हैं. वह यही टिप्स वो बिहार के लोगों को भी देते हैं. वे कहते हैं कि किसी और राज्य में रोजगार के लिए क्या भटकना है? अपने राज्य में ही तो रोजगार है. इसके साथ ही वे स्टूडेंट को दस फीसदी कम मूल्य पर उत्पाद बेचते हैं. दास कहते हैं कि मैं रोजगार को इस कारण बढ़ावा देने के पक्ष में हूं क्योंकि मैंने उसका दंश झेला हूं. लोग मामूली रोजगार के लिए पलायन करते रहते हैं जबकि थोड़ी सी मेहनत के बाद उनकी तकदीर बदल सकती है.
कलावती देवी 75 दलित परिवारों को उपलब्ध कराती हैं दाल रोटी 
यारपुर, गर्दनीबाग, पटना की रहनेवाली कलावती देवी एक समय में अपने पैरों पर भी खड़ी नहीं थी. आज ना केवल प्रशिक्षण संस्थान चलाती हैं बल्कि 75 दलित परिवारों को अपने पैरों पर खड़ा करने में योगदान दे रही हैं. वह एप्लिक आर्ट, बांस की फूल-डाली से लेकर सुजनी आदि का काम कराती हैं. 85-86 से स्टॉल लगा रही हैं. दर्जनों जगहों पर स्टॉल लगा चुके हैं. उन्होंने बताया कि सुलभ इंटरनेशनल की ओर से हमें सीखाया गया है. वहीं से सीखे हैं. अंबेदकर इंस्टीटयूट ऑफ हैंडीक्राफ्ट चलाते हैं. हैंडी क्राफ्ट सीखाते हैं. एप्लिक-सुजनी और बेंत बांस का काम सीखाते हैं. 75 महिला दलित परिवार इससे जुड़े हैं. इनके कमाने खाने के लिए सारी व्यवस्था हो जाती है. मेला के अलावे अलग से भी हम स्थानीय स्तर पर उत्पाद बेचते हैं.
आलोक दास गुम हो चुका एकतारा बेचते हैं
बंगाल के ही अालोक दास 80 रुपये में गुम हो चुका एकतारा और बांसुरी बेचते हैं. अपनी हैंडमेड ज्वेलरी के साथ ही वह इसे बेचते हैं ताकि आने वाली पीढ़ी को यह वाद्ययंत्र याद रहे. वे कहते हैं कि इसमें काफी दिलचस्पी बच्चों में दिखती है और सभी इसे खरीदना चाहते हैं. आलोक की भी कहानी संघर्षों से भरी रही है. वे कहते हैं कि एक दौर था जब हम रोजगार के लिए संघर्ष करते थे. वह दौर ऐसा था जब हमें बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जूझना पड़ता था. इसी बीच स्वरोजगार ने हमारे लिए तरक्की के रास्ते खोल दिये.
हैंडलूम की सामग्री बनाते हैं संजय
भागलपुर के खरीक मिर्जाफरी गांव के रहने वाले संजय दास का परिवार बरसों से हैंडलूम के उत्पाद बेचता आ रहा है. उनकी पत्नी अमृता देवी भी इसमें सहयोग करती हैं और आज ये ना केवल बेड कवर, चादर बल्कि कपड़े आदि हाथ से बना कर बेचते हैं. बिहार दिवस में इनकी कला के काफी कद्रदान दिखे थे. एक आज ये कई लोगों को रोजगार दे रहे हैं. सुजनी और मधुबनी कला को एकाकार कर रही हैं साधना समस्तीपुर की साधना देवी सुजनी कला और मधुबनी कला को एकाकार कर रही हैं. वे 18 सालों से इस कला का प्रसार कर रहे हैं. अभी दानापुर को उन्होंने स्थायी ठिकाना बना लिया है. वह कहती हैं कि इस कला के कद्र दान काफी लोग हैं जो ढूंढते हुए आकर इसे लेकर जाते हैं. इससे आने वाले दिनों में राेजगार में और वृद्धि होगी. 

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