भागलपुर दंगे में नए डीजीपी की भूमिका को लेकर बिहार के इन दो पत्रकारों के विचार आपने पढ़ा क्या?

बिहार के नये डीजीपी केएस द्विवेदी(दाएं)
बिहार के नये डीजीपी की भागलपुर दंगों में भूमिका पर बवाल मचा है. लोग जानना चाहते हैं कि आखिर द्विवेदी की भागलपुर दंगों में क्या भूमिका थी? दो अनुभवी पत्रकारों ने अपने अनुभव फेसबुक पर बयां किया है. दोनों की टिप्पणियों को पढ़ कर आपके मन में चल रहे सवालों के जवाब मिलेंगे.
प्रवीण बाग़ी की राय:
नये डीजीपी के.एस. द्विवेदी को जानना है तो भागलपुर के लोगों से पूछिए। जैसा सम्मान इन्हें भागलपुर के एसपी के रूप में मिला ,वैसा सम्मान बहुत कम अफसरों को मिलता है। बात 1989 की है। श्री द्विवेदी के तबादले के विरोध में पुलिस और जनता सड़कों पर उतर आई थी। विद्रोह की स्थिति बन गई थी। उसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी भागलपुर पहुंचे थे। भागलपुर के  तिलकामांझी चौक पर प्रधानमंत्री को जनता और पुलिस के जवानों ने घेर लिए था। जन दबाव के आगे उनका तबादला रद्द करना पड़ा था। उस समय भागलपुर दंगे की आग में झुलस रहा था।
 1989 में वे एसपी होकर भागलपुर गए थे। उस समय चर्चित पापरी बोस कांड हो चुका था। जिसके चलते भागवत झा आजाद को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। भागलपुर में अपराधियों की समानांतर हुकूमत चलती थी। अपराधी गिरोहों को राजनीतिक संरक्षण के कारण पुलिस कुछ कर नहीं पाती थी। ऐसे में द्विवेदी वहां एसपी होकर पहुंचे थे। तब सत्येंद्र नारायण सिंह बिहार के सीएम थे। इनके वहां पहुँचने के कुछ ही दिनों बाद चंपा नाला पुल के पास पुलिस एनकाउंटर में 8 कुख्यात अपराधी मारे गए थे। इस घटना ने उन्हें रातों रात हीरो बना दिया था। पुलिस का आत्मविश्वास लौटा था। जनता ने नागरिक अभिनन्दन किया था। अपराधियों में दहशत थी। 24 अक्टुबर 1989 को रामशिला जुलूस के दौरान जब श्री द्विवेदी विधि व्यवस्था की निगरानी के लिए ततारपुर में थे ,तो जुलूस के साथ -साथ उनपर भी बम फेक मरने की कोशिश की गई। इसके बाद भागलपुर में दंगा भड़क गया था। दंगे के बाद 25 अक्टूबर 89 को उनका तबादला कर दिया गया था। 26 अक्टूबर को राजीव गाँधी भागलपुर दंगे का जायजा लेने पहुंचे थे। उस समय  कर्फ्यू के बावजूद लोगों ने उन्हें घेर लिया। लोगों को लग रहा था अपराधियों और उन्हें संरक्षण देनेवाले नेताओं के कारण द्विवेदी का तबादला किया गया है। जनता उन्हें अपराधियों से मुक्ति दिलानेवाले निडर और निर्भीक अधिकारी के रूप में देखती थी।
इसके बाद लगातार उनकी तैनाती  कम महत्व के पदों पर होती रही। अब उन्हें  बिहार की बिगड़ती विधि व्यवस्था को ठीक करने के लिए  डीजीपी की जिम्मेवारी दी गई है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बहुत सोच समझ कर के.एस. द्विवेदी को डीजीपी नियुक्त किया है। शायद वे फिर अपने पुराने फार्म में लौटें और अपराधी बिहार से भागते नजर आयें , जिसे पडोसी राज्य यूपी में हो रहा है। तभी उनका डीजीप बनना
सार्थक होगा।

ये रही शशिभूषण की आंखों की देखी :  

आज सुर्खियों में द्विवेदी सरनेम सुना तो अचानक 28 साल पहले की अपने बचपन से जुड़ी याद ताज़ा हो गई। 11 साल की छोटी उम्र में मैंने डर का जो लम्हा जीआ है, उसे भूला पाना मुमकिन नहीं। बात 1989 की है, बाबू जी की पोस्टिंग सबौर में थी। हमारी पढ़ाई को लेकर उन्होंने परिवार को भागलपुर के भीखनपुर मोहल्ले में किराए के मकान में रखा था। 20 अक्टूबर को मेरा जन्मदिन था लेकिन बाबू जी उस शाम घर नहीं आ सके थे। मुहर्रम और विषहरी पूजा को लेकर उनकी मजिस्ट्रेट ड्यूटी लगी थी। उदास मन से ही सही लेकिन दीदी और भैया की तैयारी पर मैंने जन्मदिन मनाया था। पक्के तौर पर याद है, अगली सुबह मोहल्ले के लड़के आये थे और 2 रुपए की सहयोग राशि मांगी थी। पूछने पर मुझे बड़ों ने बताया कि अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए हर जगह से ईंट भेजी जा रही, उसी के लिए ये चंदा दिया गया। भीखनपुर मोहल्ले को उस वक़्त मैं जितना समझ पाया। मोहल्ले में बंगालियों और कायस्थ परिवारों की तादाद ज़्यादा थी। हमारा घर रेलवे गुमटी 3 के पास था। बाबूजी के एक मित्र का घर गुमटी 2 के पास था, कुल जमा आधे किलोमीटर की दूरी होगी। दोनो परिवारों के बीच आना - जाना था, सो रास्ता अपना से हो चला था। रास्ते के बीच ही एक बड़ा सा बंगलानुमा घर था। बड़ा सा काला गेट, बाहर कुत्ते से सावधान वाला बोर्ड। देखने से लगता था कि किसी वीआइपी का है। बच्चों को ज़्यादा जानकारी नहीं होती लेकिन बड़ों से इतना सुना था कि बंगले के मालिक शायद नेत्रहीन थे। ठीक से याद नहीं लेकिन शायद घर पर कोई मिश्रा सरनेम वाला बोर्ड भी हुआ करता था। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जो को कांग्रेस के बड़े नेता थे, अक्सर वहां आते थे। ऐसा इसलिए याद है क्योंकि उनके आने से मोहल्ले में गहमा - गहमी बढ़ जाती थी। ख़ैर, 22 या 23 अक्टूबर 1989 की तारीख़ पर आता हूँ। देर शाम का वक़्त रहा होगा तभी हमारे एक रिश्तेदार जो भागलपुर में ही पुलिस अधिकारी थे घबड़ाहट में मेरे घर आये थे। उनके आने पर मालूम पड़ा कि शहर के किसी इलाके में मारपीट हुई है।

रात बीती, सुबह हुई लेकीन उस रात ने अगले डेढ़ महीनों के लिए हमारी जिंदगी बदल दी। सुबह उठा तो रात की मारपीट वाली ख़बर को समझने में देर न हुई कि शहर में दंगा फैल गया है। रात भर के अंदर भागलपुर का हर इलाक़ा दंगे से प्रभावित था। फ़ोन की सुविधा नहीं थी सो पूरे परिवार को बाबूजी की चिंता सता रही थी। बाबूजी की ड्यूटी पीरपैंती में लगी थी लेकिन उन्हें हमारी फ़िक्र ज्यादा रही होगी। भीखनपुर मोहल्ले से सटा बरेपूरा मोहल्ला था। हर वक़्त की नमाज़ बड़ी आसानी से हमारे कानों तक जाती थी लेकिन अब उस लाउडस्पीकर से बहुत कुछ सुनने को मिल रहा था। मोहल्ले के लड़कों ने टोलियां बनाकर घूमना शुरू कर दिया था। उस दौर में जैसे वही मुझे रोल मॉडल दिख रहे थे। 11 साल के एक बच्चे को यही लगता था कि पास - पड़ोस वाले भैया रॉबिनहुड हैं। सुरक्षा को लेकर चंदा बटोरने का काम हुआ। मोहल्ले के समझदारों ने एडवाइजरी जारी कर दी - अंधेरा होते घर की सभी लाइट्स ऑफ कर दीजिए, घर के बाहरी हिस्से में बड़ा बल्ब जलाकर रखिये, घर के फर्नीचर को बरामदे में ढाल की तरह लगाकर रहिये... वग़ैरह। आपबीती है, सच्ची बात। इसलिए आप थोड़ा बोर हो सकते हैं। अगर इंटरेस्ट न हो तो आप रहने दीजिये।

ख़ैर, भागलपुर में दंगा भड़क रहा था। शुरू के दो चार दिनों में बालमन को रोमांचित करने वाला एक्साइटमेंट अब खत्म हो रहा था। हफ़्ते भर से स्कूल के दोस्तों से भी मुलाकात नहीं हुई थी। अब सब कुछ बोरिंग हो रहा था। बाद 15 दिनों से आगे जा रही थी। लाउडस्पीकर पर कर्फ्यू जारी रखने का एलान हर दिन दो बार सुनने को मिलता था। हां, इस बीच बाबूजी अपनी ड्यूटी के दौरान ही पेट्रोलिंग पार्टी के साथ घर आकर हमारी ख़ोज खबर ले लेते थे। सरकारी सेवक थे, जिम्मेवारी उनपर भी थी। दंगों के बीच हमारे जीवन मे बहुत कुछ बदल रहा था। हरी सब्जियां तो दूर दूसरे हफ़्ते में आलू भी खाने से ग़ायब था। सोयाबीन, चना के अलावे मां के बनाये गए अदौरी (बरी) से काम चल रहा था। खाना कम खाने के साथ बर्बादी न करने हिदायत थी।  सबसे बुरा हाल माँ की पाली हुई गाय माता का था। भूसा कम होता जा रहा था, कर्फ़्यू में ढील नहीं थी सो चारा चलाने की जद्दोजहद में वहां भी कटौती थी। नाथनगर, आदमपुर से लेकर चंदेरी गांव तक में हिंसा की घटनाएं हो रही थी। राजनीतिक नामसमझी की अवस्था मे भी मोहल्ले के बड़े - बुजुर्गों की बातचीत सुनकर धीरे - धीरे कुछ समझ विकसित करने लगा था।

शहर में जब हिंसा की शुरुआत हुई थी, उस वक़्त जिन लोगों को जिले के तत्कालीन पुलिस कप्तान द्विवेदी जी के समर्थन में खड़े देखा था। तीन हफ़्ते पहले तक जो चिल्ला - चिल्लाकर द्विवेदी जी को सुपर कॉप बता रहे थे। मार काट और कर्फ़्यू की जकड़न से ऊबे वही लोग अब ये सवाल उठाने लगे थे की रामशिला पूजन वाली शोभायात्रा को मुस्लिम बहुल फतेहपुर इलाक़े से निकालने का फ़ैसला सुपर कॉप ने क्यों लिया। इसके पीछे का मकसद क्या था। सभी जानते हैं कि इसी शोभायात्रा पर हमले के बाद दूसरे इलाकों में दंगा भड़का। मैं छोटा सा बच्चा, तरह - तरह के लोकल विशेषज्ञों की बात सुनता। कोई कहता... सुपर कॉप ने अपनी जाति के पूर्व सीएम के कहने पर तत्कालीन सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कराई। कोई कहता... राम मंदिर अभियान वालों के लिए उन्होंने खेल खेला। तब मुझमे ये काबिलियत नहीं थी कि सच्चाई जान पाता। दंगे का दर्द बड़ा था। बाबूजी ने अपने बचपन के मित्र को खोया, उनका तो कुछ शेष भी नहीं मिल सका। भीखनपुर में वेलकम स्टोर वाले इक़बाल भैया का दुकान लूटते देखा। मिस डेयरी के पास वाले रिक्शा पड़ाव को आधी रात के वक़्त जलते हुए देखना याद है। मेरे घर के पास वाली गली बम के धमाकों से कैसे गूंजा, आज भी याद है। कर्फ़्यू में आधे घंटे की ढील के बीच माँ को राशन का आधा समान लाते देखना आज भी याद है। उन 45 दिनों में इतना कुछ झेला है और इतना कुछ अब  भी याद है कि लिखने पर पोस्ट उबाऊ हो जाएगा। दो और अधिकारियों के नाम भी आज तक याद हैं.... कोई नए एसपी या एएसपी आये थे एमवी राव और सेना वाले मेजर विर्क। ये इसलिए याद हैं क्योंकि भागलपुर में जिंदगी जब वापस पटरी पर लौटी तो उसमें इन दोनों को भूमिका याद है। नए साहब का पुराना सरनेम आज सुर्खियों में आया तो अचानक बहुत सी बातें याद आ गई। मैं किसी का करेक्टर स्केच बनाने योग्य नहीं, बस जो कुछ भी 11 साल की उम्र में जीवन के सबसे कठीन दौर में देखा, सुना और समझा बस उसी की वैसे ही लिख दिया। वैसे भी खादी को थोड़ा बहुत समझता हूँ ख़ाकी को बिल्कुल नहीं। उम्मीद करता हूँ.. ख़ाकी को समझने वाले एक्सपर्ट अपनी राय से मुझे कोई राय बनाने में मदद करेंगें।
साभार: फेसबुक

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