बिहार का प्रतिकार : मृत्युभोज की परंपरा के खिलाफ हुआ स्वतंत्रता सेनानी का परिवार

- कृपा नारायण सिंह ने पहले पिता और फिर मां की मृत्यु के बाद नहीं कराया ब्रह्मभोज
- अब चला रहे अभियान, दूसरों को कर रहे प्रेरित
पटना.
सदियों से चली हुई परंपराओं के खिलाफ खड़ा होना, उसे खुद ही मापदंड के रूप में पेश करना और उसके खिलाफ अभियान चलाना कोई साधारण बात नहीं है. खासकर जब जड़ जमाई हुई परंपरा में समाज का दखल हो और वह आस्था से भी जुड़ा हो. पटना के नौबतपुर के एक परिवार ने मृत्युभोज की परंपरा के खिलाफ खड़े होने का साहस दिखाया है और अब अभियान भी चला रहे हैं. दरअसल हिंदू समाज में किसी की मौत के बाद मृत्यु भोज देने की परंपरा रही है. माना जाता है कि इस भोज का पुण्य मृतक आत्मा तक जाता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है.
यह पैसा बेटी की शिक्षा पर खर्च करने का दे रहे संदेश
नौबतपुर नगर पंचायत के अमरपुरा निवासी कृपा नारायण सिंह के परिवार ने ये भी फैसला लिया है कि मृत्यु भोज जैसे कार्यक्रमों में खर्च होनेवाले पैसे बेटी की पढ़ाई के लिए जमा होंगे. परिवार के मुखिया कृपा नारायण सिंह पेशे से किसान हैं. कृपा नारायण के पिता स्वतंत्रता सेनानी थे. उनकी मृत्यु के बाद नारायण परिवार ने मृत्युभोज नहीं करने का फैसला लिया. समाज में इस फैसले को लेकर इन्हें विरोध का सामना भी करना पड़ा लेकिन अब ये परिवार मुद्दे को सामाजिक आंदोलन के रूप में बदलने में जुट गया है. कृपा नारायण सिंह के परिवार ने मृत्यु भोज के खिलाफ जनजागरण फैलाने की शुरुआत की है साथ ही इस पर खर्च होनेवाले पैसे को अब ये परिवार बेटी की पढाई के लिए जमा करने का संदेश भी दिया जिसका समर्थन इस परिवार की बहू ने भी कर दिया है.
परिवार का भी मिला साथ तो पड़ोसी गांव तक ले गये अभियान
सदियों से चली आ रही इस परंपरा का विरोध आसान नहीं था लेकिन जब परिवार का साथ मिला तो अभियान के लिए कृपा नारायण सिंह मजबूत इच्छाशक्ति के साथ जुट गये. पत्नी उमा देवी और बहू कुमारी रागिनी ने इसमें साथ दिया है. इससे प्रेरित तो कृपा इसी अभियान के लिए हमें अपने साथ पास के ही करंजा गांव ले गये जहां एक गरीब परिवार ब्रह्मभोज की चिंता में इन दिनों परेशान है. अरविंद पासवान के पिता का निधन एक सप्ताह पहले हो गया था. अरविंद के पिता खेतिहर मजदूर थे. आसपास से मांग कर अरविंद ने अपने पिता का अंतिम संस्कार तो कर दिया लेकिन अब चिंता चंद दिनों बाद होने वाले मृत्यु भोज को लेकर है. बेरोजगार अरविंद कहता है कि कर्ज लेकर भी भोज कराना हो तो वो करायेगा क्योंकि मामला परंपरा का है. कृपा नारायण हर रोज समय निकालकर अरविंद के पास आते हैं. अरविंद और उसके समाज के लोगों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि अब वक्त आ गया है जब इस रीति रिवाज से बाहर निकलने की जरूरत है.
पंडित कहते हैं, कर्मकांड में नहीं है मृत्युभोज के आडंबर की बाध्यता
कर्मकांड के जानकार पंडित बद्री नाथ तिवारी कहते हैं कि कोई भी परिवार अपने सामर्थ्य के मुताबिक एक ही ब्राह्मण को भोज कराकर कर्म कांड पूरा कर सकता है. रीति के नाम पर पूरे गांव या समाज को भोज देना कोई बाध्यता नहीं है.
समाजशास्त्री कहते हैं, समाज में हो रहा है बदलाव
समाजशास्त्री प्रो विनय कुमार विमल कहते हैं कि मृत्यु भोज के नाम पर समाज द्वारा दवाब डालकर किसी परिवार को आर्थिक परेशानियों में धकेल देना भी कोई बुद्धिमानी नहीं है. नौबतपुर की घटना और अभियान समाज में आ रहे बदलाव का सूचक है. समाज में पहले भी 13 दिनों तक चलने वाले कार्यक्रम तीन दिनों तक सिमट गये हैं.
मेरी यह स्टोरी आज यानी 15 नवंबर 2017 के प्रभात खबर में प्रकाशित है. इसका लिंक नीचे दिया गया. 
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